________________
(६) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा प्रताप का 'पवित्र भवन' है।
(७) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा भव्यजीवों के नेत्रों के लिये 'दिव्यसुधा-अमृत तुल्य' है।
(८) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा अशोक वृक्षादि अष्ट प्रातिहार्य की अनुपम शोभा से 'सुन्दर सुशोभित' है।
(६) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा प्रतिक्षण बढ़ती हुई कान्ति से 'अत्युत्तम-अद्भुत' है ।
(१०) हे प्रभो! तेरो मत्ति, तेरी प्रतिमा विश्व में सर्वदा सर्वोत्कृष्टपने प्रवर्त्तती है। इसलिए यह सर्वोत्कृष्ट है।
(११) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा की प्रामाणिकता को तो आगम-सिद्धान्त मर्मज्ञ महापुरुषों ने आदर-बहुमान पूर्वक प्रेम से स्वीकारा है । इसलिए वह मूत्ति-प्रतिमा 'शास्त्रोक्त प्रामाणिक' है।
(१२) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा सद् विचारवान समस्त शिष्ट पुरुषों को तथा धर्मीजीव-धर्मात्माओं को 'अहर्निश आदरणीय' है ।
. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-७७