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(१३) हे प्रभो ! तेरो मूति, तेरो प्रतिमा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों से 'नित्य वन्दनीय' एवं 'सर्वदा पूजनीय है ।
(१४) हे प्रभो ! तेरो मति, तेरो प्रतिमा मोहरूपी दावानल-अग्नि को शान्त करने के लिये 'मेघवृष्टि' के समान है।
(१५) हे प्रभो! तेरी मत्ति, तेरी प्रतिमा समता रूपी प्रवाह को देने के लिये पवित्र 'नदी-सरिता' के सदृश है।
(१६) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा सत्पुरुषों को वाञ्छित देने के लिये उत्तम 'कल्पलता' के तुल्य है ।
(१७) हे प्रभो ! तेरी मूर्ति, तेरी प्रतिमा संसार रूपी उग्र तिमिर-अन्धकार का नाश करने के लिये 'सूर्य की तीव्र प्रभा के स्वरूप' है।
(१८) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा भव्यजीवों-भव्यात्माओं को संयम द्वारा संसार-सागर से पार करने के लिये 'अत्युत्तम स्टीमर-जहाज' के सदृश है।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-७८