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"अर्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधि - चित्तोत्पादकत्वात् चैत्यानि भण्यन्ते ।" अर्थ-चित्त यानी अन्तःकरण का भाव या अन्तःकरण की क्रिया, उसका नाम चैत्य है । श्री अरिहन्तों की मूत्ति-प्रतिमाएँ अन्तःकरण की प्रशस्त समाधि को उत्पन्न करने वाली होने से 'चैत्य' कहलाती हैं।
___ श्रीनन्दीसूत्रादि आगमशास्त्रों में भी जहाँ पर मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों का विषय आया है वहाँ पर लिखा हुआ है कि "नाणं पंचविहं पन्नत्तं" अर्थात् ज्ञान के पाँच प्रकार हैं । वहाँ पर ऐसा पाठ नहीं है कि "चेइयं पंचविहं पन्नत्तं" अर्थात् चैत्य पाँच प्रकार के हैं।
नवाङ्गी टीकाकार आचार्य भगवन्त श्रीमद् अभयदेव सूरीश्वरजी महाराज ने 'चैत्य' शब्द का अर्थ "इष्टदेव की प्रतिमा" ऐसा किया है । यथा-"चैत्यम् इष्ट देवप्रतिमा" ।
(भगवती सूत्र,शतक २, उद्देश-१)
तदुपरान्त-'प्रवचनसारोद्धार' नामक ग्रन्थ की वृत्ति में तथा 'सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक ग्रन्थ में भी 'चैत्य' शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा तथा उपचार से जिनमन्दिर ऐसा किया है।
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मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-७३