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अर्थ-चैत्य कहने से (१) जिनचैत्य, जिनमन्दिर (२) जिनमुत्ति, जिनप्रतिमा और (३) जिनराज की सभा का चौंतराबन्ध तरु-वृक्ष ।
'श्रीअभिधान चिन्तामणि' कोश ग्रन्थ में भी उन प्राचार्य महाराजश्री ने इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि "चैत्यविहारौ जिनसद्मनि ।" चैत्य यानी विहार शब्द जिनगृह के अर्थ में है।
१४४४ ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य भगवन्त श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने भी कहा है कि
"चैत्यवन्दनतः सम्यक् शुभो भावः प्रजायते । तस्मात् कर्मक्षयः सर्व-स्तत् कल्यारगमश्नुते ॥"
अर्थ-चैत्य यानी जिनमन्दिर एवं जिनमूत्ति को सम्यक् प्रकार वन्दन करने से प्रकृष्ट शुभ भाव पैदा होते हैं । शुभ भाव से समस्त कर्मों का क्षय होता है और कर्मों का क्षय होने के पश्चात् पूर्ण कल्याण की प्राप्ति होती है।
_ "चैत्यवन्दन' अर्थात् अरिहन्त भगवन्तों की मूत्तिप्रतिमाओं की पूजा कैसे होती है, इस सम्बन्ध में कहते हैं कि “चित्तम्-अन्तःकरणं तस्य भावः कर्म वा,प्रतिमालक्षणम् अर्हच्चैत्यम् ।”
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-७२