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जैन उपाश्रय एवं जैनधर्मस्थान, देवालय इत्यादि श्रेष्ठ साधन रूप में हैं।
वहाँ से ही सभी धार्मिक प्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उत्पन्न होती हैं।
जिनके हृदय में वीतराग विभु श्रीजिनेश्वर देव के दर्शन-वन्दन एवं पूजन इत्यादि करने का भाव होता है वे लोग जिनमन्दिरों की आवश्यकता निःसन्देह अवश्य स्वीकार करते हैं।
जैसे अपनी धर्म-भावना को सही रूप में बनाये रखने के लिये मन्दिरों की अति आवश्यकता है, वैसे ही परिग्रह की ममता को कम करने के लिये भी मन्दिरों की उपयोगिता है। ___ मन्दिरों के नव-निर्माण तथा जीर्णोद्धार इत्यादि कार्यों में धन का सद्व्यय करना शुभ कर्मबन्धन का निमित्तकारण बनता है।
इसलिये मन्दिर ही वे सुन्दर स्थान हैं कि जहाँ पर भावुक व्यक्ति अपने धन का सदुपयोग अच्छी तरह से कर सकता है और साथ में अति पुण्य भी उपार्जन करता है ।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-६८