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श्वर देव को द्रव्यपूजा छूट जाती है तथा तनिमित्तक शुभ द्रव्य का व्यय भी नहीं होता है ।
(६) मूर्ति को नहीं मानने से उसके सम्मुख जो चैत्यवन्दन, देववन्दन, स्तुति, स्तवन, गीत-गान, नृत्य तथा ध्यान इत्यादि होते हैं, वे सभी रुक जाते हैं।
(७) मूत्ति और मन्दिर की तथा उनके दर्शन-वन्दन और पूजन की एवं मूत्ति-मन्दिर मानने वाले महानुभावों की टीका-टिप्पणी और निन्दा आदि करने से क्लिष्ट कर्म का बन्ध होता है तथा बोधिदुर्लभतादि महान् दोषों की प्राप्ति होती है।
(८) मूत्ति और मन्दिर नहीं मानने से और उनके दर्शनादि नहीं करने से आत्मा का अधःपतन ही होता है । चौरासी लाख जीवायोनियों में परिभ्रमण ही रहता है और चारों गतियों में भटकना ही पड़ता है।
(६) जिनमूति-जिनबिम्ब-जिनप्रतिमा और जिनागम, जैनसिद्धान्त और जैनशास्त्र इनके प्रशस्त पालम्बन एवं इनकी विधिपूर्वक सेवा-भक्ति बिना मुक्ति पाने की चाहे कितनी भी अभिलाषा-इच्छा क्यों न हो, मुक्ति नहीं मिल सकती है।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-६६