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(१) वीतराग विभु श्री जिनेश्वर देव के दर्शन-पूजन के समय आराधक महानुभाव प्रभु की मूत्ति के सम्मुख चैत्यवन्दनादि द्वारा गुणस्तुति इत्यादि करता है जिससे उसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है ।
(२) जिनमूत्ति-प्रतिमा के भावपूर्वक दर्शनादि करने से दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है।
(३) जिनमूर्ति-प्रतिमा के दर्शन-पूजन करते समय सभी जीवों के प्रति समभाव रहने से तथा जयणा-यतनापूर्वक वर्तन करने से अर्थात् जीवदया की शुभ भावना से असातादि वेदनीय कर्म का क्षय होता है।
(४) जिनदर्शन एवं जिनपूजन के समय वीतराग श्री अरिहन्त परमात्मा तथा श्री सिद्ध भगवन्त के गुणों का स्मरण करने से क्रमशः दर्शनमोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय होता है।
(५) जिनदर्शन एवं जिनपूजन करते समय शुभ अध्यवसाय यानी शुभ भाव की तीव्रता से तफलस्वरूप आयुष्य कर्म का क्षय होता है ।
(६) जिनदर्शन एवं जिनपूजन करते समय श्री जिनेश्वर देव का नाम लेने से नाम कर्म का क्षय होता है ।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-६२