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के दर्शन-पूजन के समय जो अक्षतादि चढ़ाए जाते हैं, यह एक प्रकार का 'दानधर्म' है ।
(२) वीतराग विभु श्री जिनेश्वरदेव की भव्य-मूर्ति के दर्शन-पूजन के समय विषय-विकारादिक को त्यागना अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना, यह भी एक प्रकार का 'शील धर्म' है।
(३) वीतराग विभु श्री जिनेश्वरदेव की भव्य-मूर्ति के दर्शन-पूजन के समय अशन-पाण-खादिम-स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना, यह भी एक प्रकार का 'तप धर्म' है।
(४) वीतराग विभु श्री जिनेश्वर देव की भव्य मूत्ति के दर्शन-पूजन के समय देवाधिदेव श्रीवीतराग प्रभु का • स्तुति-स्तवनादि द्वारा गुणगान आदि करना, यह भी एक प्रकार का 'भाव-धर्म' है।
इस तरह जिनपूजा में दानादि चारों धर्मों की पाराधना हो जाती है। (१६) प्रभु के दर्शन-पूजन से अष्टकर्म का क्षय
वीतराग विभु श्रीजिनेश्वरदेव के दर्शन-पूजन से ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों का क्षय होता है । जैसे
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मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-६१