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को भी यदि अनीतित्याग की भावना से और पश्चाताप पूर्वक जिनचैत्य-मन्दिरादि निर्माण के कार्य में लगाया जाय तो इससे अपनी दुर्गति रुक जाती है । अर्थात् अपने को दुर्गति में जाने का बंध नही होता है । कारण कि जिनचैत्य-मन्दिरादि का निर्माण कार्य करने से लाखों लोग इसका अच्छा लाभ लेते हैं । निर्माण कर्मबंध का कारण होते हुए भी इसका उपयोग मन्दिरादि शुभ में होने से वह कर्म-निर्जरा का कारण बन जाता है ।
(११) जिनमूत्ति के दर्शन-पूजन नित्य करने से अपने अन्तःकरण में तीर्थयात्रा करने की भी शुभ भावना रहती है। ___ चित्त की निर्मलता और शरीर की नीरोगता तथा दान, शील एवं तप की वृद्धि इत्यादि महान् लाभ तीर्थयात्रा करने से प्राप्त होते हैं।
(१२) शारीरिक रोगादि कारणों से प्रभु की पूजा न हो सके तो भी भावना प्रभुपूजा की रहती है। ऐसी परिस्थिति में कभी मृत्यु भी हो जाय तो भी आत्मा की शुभ गति होती है।
(१३) मूत्ति और मन्दिरों के शिलालेखों द्वारा जो लाभ हुआ है वह विश्व के इतिहास में आज भी प्रत्यक्ष है।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-५६