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(६) प्रभु की मूत्ति के दर्शन और पूजन से सन्मार्ग की ओर मुख्यता स्थायी बनती है तथा सर्वदा सद्गुणों का आदर्श मिलता है।
(७) साधु-साध्वियों का विहार आदि न होने पर भी प्रभु की मूर्ति के दर्शन एवं पूजन करने के कारण धर्मी जीवों को जैनधर्म में दृढ़ता रहती है, इतना ही नहीं किन्तु गौरव होता है कि पूर्व परम्परा से हमारे पूर्वज भी इस कार्य को करते आये हैं इसी से हम जैन हैं और हमारे देव जिनेश्वर हैं, इस प्रकार जानते हैं, जिससे उनका सुधार होता है और उद्धार भी होता है। इसलिये वे धर्म से च्युत नहीं होते।
(८) प्रतिदिन प्रभु की मूर्ति के दर्शन एवं पूजन करने वाला व्यक्ति पाप से डरता है, तथा अधर्म-अनीतिपूर्ण ऐसे परस्त्रीगमनादि अपकृत्य करने के संस्कार उसकी आत्मा से विनष्ट हो जाते हैं। ___(8) प्रभु की मूर्ति के अहर्निश दर्शन एवं पूजन करने वाले व्यक्ति को अपना अल्प या अधिक द्रव्य शुभ क्षेत्र में खर्च होने से पुण्य का बन्ध होता है ।
(१०) अनीति, अन्याय आदि कार्य से उपाजित द्रव्य
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-५८