________________
द्वारा भी उपासक व्यक्ति उन सम्यग्दर्शनादि गुणों को ढकने वाले ज्ञानावरणीयादि आवरणों को हटाकर प्रात्मा के गुणों को अवश्यमेव प्रकट कर सकता है ।
मानव का पूर्ण जीवन अपने भावों पर प्राधारित रहता है तथा भावों में अधिकता और हीनता एवं मध्यस्थता आलम्बन के आधार पर ही आती है । जैसा दृश्य देखने में आयेगा वैसा ही भाव बनेगा | अपने निर्मल भावों की श्रेष्ठता से इन्सान भी अवश्य भगवान बन सकता है । कारण यही है कि वीतराग देव की अनुपम भक्ति में महान् शक्ति पड़ी है । इसलिये महापुरुषों ने कहा है कि 'भक्ति मुक्ति की दूती है ।'
विश्व में मूर्तियाँ तो अनेक हैं, किन्तु वीतराग विभु देवाधिदेव श्रीजिनेश्वर भगवन्तों की मूर्तियों की विशिष्टता सब से न्यारी और अनूठी है । जिनकी अंजनशलाका यानी प्राणप्रतिष्ठा जैनमंत्रों तथा विधिविधानपूर्वक हुई हो, ऐसी जिनमूर्ति देखते ही अपने अन्तःकरण में वीतराग भाव की उत्पत्ति होती है । इसके आलम्बन द्वारा आत्मा परमात्मा बनता है और मोक्ष के शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - ५६