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केवल गुरु की मूर्ति से ही धनुविद्या सीखने की कला जिसने प्राप्त की, उस एकलव्य भील का यह ज्वलन्त उदाहरण इतिहास के पन्नों पर आज भी विद्यमान है । एक प्रभु भक्त ने कहा है कि
"पत्थर भी सुन लेता है इसलिये हम पत्थर को पूजते हैं । जिसके दिल में है पत्थर, उसे पत्थर ही सूझते हैं ।" मूर्ति को केवल पत्थर मानने वाले बोलते हैं कि "यह पत्थर की मूर्ति हमें क्या देगी ?"
ऐसा बोलने वाले भूल जाते हैं 'जीवन के प्रतिदिन के व्यवहार को ।' जैसे - श्रापके माता-पिता की छवि - फोटो देखते ही आपको माता-पिता की याद आ जाती है तथा उनके गुण भी तत्काल याद आ जाते हैं । उसी तरह भगवान की मूर्ति को देखकर भगवान की याद आ जाती है तथा उनके गुण भी अवश्य ही याद
जाते हैं ।
वीतराग परमात्मा की उपासना वीतराग प्रभु को प्रसन्न करने के लिए नहीं, किन्तु अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के लिए ही की जाती है । अनादिकाल से अपनी आत्मा के साथ लगे हुए राग-द्वेषादि कर्मों को
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - ५४