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एकलव्य की कुटिया में पहुँचे । उस समय गुरु द्रोणाचार्य को साक्षात् अपनी कुटिया में देखकर एकलव्य भील उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला__"पूज्य गुरुदेव ! आज आप मेरी छोटी सी कुटिया में पधारे, इसलिये आज मैं कृतकृत्य हुआ हूँ।" ___ गुरुश्री द्रोणाचार्य ने पूछा, "हे वत्स ! यह धनुर्विद्या तुमने किसके पास सीखी है ?" हाथ जोड़कर विनयपूर्वक एकलव्य भील ने कहा, "पूज्य गुरुदेव ! आपसे ही मैंने धनुर्विद्या सीखी है ?" ऐसा बोलकर वह उन्हें उस अनगढ़ मूत्ति के पास ले गया । वहाँ पर अपनी मूति को देखकर गुरु द्रोणाचार्य क्षण मात्र में समस्त रहस्य समझ गये और बोले "वत्स ! तूने कमाल कर दिया। अब लामो गुरुदक्षिणा ।" __एकलव्य भील बोला-"पूज्य गुरुदेव ! आपके चरणों में सर्वस्व समर्पित है, जो भी अभिलाषा-इच्छा हो, आप आदेश दीजिये।"
गुरु द्रोणाचार्यजी ने दक्षिणा में उसके दाहिने-दायें हाथ का अँगूठा मांगा। उसी समय शिष्य एकलव्य भील ने तत्काल अपने दायें हाथ का अंगूठा काटकर उन्हें
दे दिया।
मूति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-५३