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वाले गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शूद्र भील जानकर इन्कार किया । अर्थात् उसको धनुर्वेद की शिक्षा नहीं दी । एकलव्य भील ने श्रद्धा और जिज्ञासा की दृढ़ता से श्री द्रोणाचार्य को ही गुरु माना था । अतः अपने स्थान पर आकर उसने अपने गुरु श्री द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर अपनी छोटी सी कुटिया में स्थापित कर ली । प्रतिदिन उसके सम्मुख बैठकर वह धनुविद्या का अभ्यास करता रहा । कभी बाग निशाने से चूक जाता तो मूर्ति के पास आकर क्षमा माँगता और सफल हो जाता तो मूर्ति के चरणों में नत हो जाता, विनयपूर्वक दण्डवत् प्रणाम करता ।
इस तरह कुछ वर्षों तक अभ्यास करते हुए वह धनुविद्या में बहुत प्रवीण हो गया ।
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एक दिन श्री द्रोणाचार्य गुरु के साथ कौरव और पांडव मृगया (शिकार) खेलने के लिये वन में गये, साथ में पांडवों का एक प्यारा कुत्ता भी था । यह कुत्ता इधरउधर घूमते हुए वहाँ जा निकला जहाँ एकलव्य भील धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था, कुत्ता एकलव्य भील को देखकर भूकने लगा । उसी समय एकलव्य ने सात बारण ऐसे चलाये कि जिनसे उस कुत्ते का मुख बन्द हो गया । दुःखित होता हुआ वह कुत्ता शीघ्र ही पाण्डवों के
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - ५१