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चित्र न समझ कर आप जीवित व्यक्ति की दृष्टि से ही तो देखते हैं । वे चित्र जड़ होते हुए भी आपके हृदय पर जीवित तुल्य प्रभाव डालते हैं।
संसार की बहुत सी बातें चलचित्रों से सीखी जाती हैं। कुव्यसनों की ट्रेनिंग आधुनिक चलचित्रों से भी ली जा रही है, आज के छोटे-छोटे बच्चों में भी वह वृद्धि पा रही है । हिंसा, स्वैराचार, कामुकता आदि की भावनाएँ टी.वी., टेलीविजन और सिनेमा आदि की ही तो देन हैं। इस बात से आप इन्कार नहीं कर सकते ।
रात्रि में आते हुए स्वप्नों में भी चित्रों तथा दृश्यों को देखकर सुख और दुःख का अनुभव होता है । इसलिये यह सत्य कहना पड़ता है कि हमारा सम्पूर्ण जीवन चित्रों के प्रभाव से निर्मित है।
__यदि हम सिनेमादि चलचित्रों से सब कुछ सीख सकते हैं तो क्या हम देवाधिदेव श्री वीतराग विभु की मूर्ति के दर्शनादिक से और उनकी विधिपूर्वक की गई पूजा-भक्ति एवं उपासनादिक से पवित्र नहीं बन सकते ? क्या कर्मों का क्षय नहीं कर सकते ? क्या परमात्म-तत्त्व प्राप्त नहीं कर सकते ? अवश्यमेव हम कर सकते हैं। इसमें अंश
मूत्ति-४
मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-४६