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अपने उपास्य वीतरागदेव और उनकी स्थापना दोनों की पहचान आकार-आकृति से होती है।
इसलिये ये दोनों एक नाम से ही सम्बोधित होते हैं। भक्ति आदि के लिये भाव पदार्थ में तथा भिन्न पदार्थ में निहित प्राकार, सरीखा कार्य करता है ।
___ सर्वज्ञ श्री तीर्थंकर परमात्मा, श्रुतकेवली श्री गणधर महाराजा तथा अन्य इष्ट एवं पाराध्य महापुरुष अपने काल में स्वयं अपने आकार से ही पहचाने जाते थे । कारण कि अवधिज्ञानादिक अतीन्द्रिय ज्ञान को धारण करने वाले ऐसे महर्षि भी श्री तीर्थंकर भगवन्तों की अमूर्त
आत्मा का या उनके गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान करने में असमर्थ होते हुए भी उनके औदारिक देह रूपी पिण्ड या उनके आकार से ही उन्हें पहचानते थे ।
जैसे उपास्य को पहचानने का या उनका परिचय कराने का कार्य उनके मूल आकार से होता है, वैसे ही अन्य पदार्थ में स्थापित उपास्य के आकार से भी वह कार्य हो जाता है।
इस कार्य से उपास्य की आकार-आकृतिमय स्थापना
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-४४