________________
की प्राप्ति में बाधक होती है। इतना ही नहीं किन्तु प्राप्त सम्यक्त्व-समकित का भी विनाश करने वाली होती है।
विश्व में कोई भी काल या क्षेत्र ऐसा नहीं है कि जिसमें मूत्ति और मूर्तिपूजा की अस्तिता-विद्यमानता न हो तथा श्री अरिहन्त भगवन्तों की वे मूर्तियाँ उनके उपासकों को पवित्र न करती हों।
इसलिये मूत्ति एवं मूर्तिपूजा आत्मकल्याण का एक प्रारम्भिक-प्राथमिक परम अंग है । अपने अधिकार और अपनी योग्यता के अनुसार संसारत्यागी साधु-साध्वियों को श्री अरिहन्त परमात्मा की भावपूजा प्रतिदिन करनी अति आवश्यक है तथा श्रावक-श्राविकाओं को द्रव्यपूजा और भावपूजा दोनों निरन्तर करनी अति आवश्यक है। नहीं करने वाले साधु-साध्वी को तथा श्रावक-श्राविका को शास्त्रकार भगवन्तों ने प्रायश्चित्त का भागीदार कहा है। इसीलिये साधु-साध्वी को श्री अरिहन्त परमात्मा की भावपूजा से कभी भी वंचित नहीं रहना चाहिए। श्रावक-श्राविकाओं को भी द्रव्यपूजा और भावपूजा दोनों से कभी भी वंचित नहीं रहना चाहिये ।
जिस तरह श्री जिनेश्वरदेव की साधना उनके नाम
मूति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-४२