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है कि-"सर्वज्ञ विभु श्री वीतरागदेव की आराधना एवं उपासना मुख्यपने उनकी मूत्ति-प्रतिमा के द्वारा ही सम्भवती है। इसके बिना अन्य कोटि उपायों से भी वह आराधना उपासना सुशक्य नहीं होती है।"
श्री जिनेश्वरदेव-तीर्थंकर परमात्मा की साधना, आराधना एवं उपासना जिस तरह उनके नाम-स्मरण से, उनके गुण-कीर्तन से, उनके उत्तम जीवन-चरित्रों के श्रवण से, उनकी सम्यक् आज्ञाओं के पालन से तथा उनकी सेवाभक्ति से होती है, उसी तरह उनकी आकृति-प्राकार, मूति-प्रतिमा या प्रतिबिम्ब इत्यादिक से भी होती है।
विश्व में श्री जिनेश्वर-वीतरागदेव की पूजा एवं उपासनादि कोई कल्पित वस्तु नहीं है, तथा किन्हीं अबोध व्यक्तियों के द्वारा आविष्कृत वस्तु-पदार्थ भी नहीं है । किंतु यह तो धर्मी जीवों-भक्त आत्माओं के अन्तःकरण की गहरी-गाढ़ भक्ति में से निकली हुई एक सहज और अनिवार्य अनुपम वृत्ति तथा सद्प्रवृत्ति है ।
अमूर्त या मूर्त दोनों में से किसी भी वस्तु-पदार्थ के समस्त गुणधर्मों तथा स्वरूप का बोध छद्मस्थ जीवों को उनके नाम, प्राकृति-आकार के आलम्बन के बिना अंशमात्र
मत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-४०