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________________ आत्मा-जीव कर्म सहित है और परमात्मा कर्मरहित विशुद्ध स्वरूप परमेश्वर है। परमात्मा और आत्मा में यही अन्तर है। प्रात्मा को परमात्मा बनाने के लिये जैन परमात्मा की उपासना अर्चना-सेवा-भक्ति परम आलम्बनभूत हितकारी है। सेवा-भक्ति का यह उद्देश्य नहीं है कि उनसे हम कोई सांसारिक सुखों की याचना करें। सिर्फ उनके दर्शन और अवन आदि का उद्देश्य तो यही है कि उनके गुणों का कीर्तन-स्मरण-ध्यान इत्यादि करना । अर्थात् आत्मा के शुद्ध परमात्म स्वरूप का ध्यान करना-स्मरण करना । यह करके हृदय में ऐसा विचारना कि-"मैं परमात्मस्वरूप होते हुए भी ऐसी दशा में और इस प्रकार की परिस्थिति में क्यों हूँ। कब मैं आत्मोन्नति-आत्मिक विकास के द्वारा परमात्मस्वरूप को प्राप्त करूंगा।" प्रभुदर्शन-अर्चनादिक का मुख्य उद्देश्य यही है। उनके गुणानुरागी बनकर उनके गुणों को प्राप्त करना और अपने जीवन में से दुर्गुणों का विध्वंस-विनाश करना। प्रतः अपनी आत्मा को परमात्मस्वरूप बनाने में 'मूर्तिपूजा' कारण है, इतना ही नहीं किन्तु अपने जीवन को भी उज्ज्वल करने के लिए पुष्ट आलम्बन है । मूत्ति-३ मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-३३
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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