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इस प्रकार मूर्तिपूजा का अस्तित्व सनातन काल का विद्यमान है और भविष्य में भी रहने वाला है। सभी प्राचार्यों आदि ने इस विधान को आदर बहुमानपूर्वक सम्मान देकर जैन समाज पर महान् उपकार किया है ।
(१३) मत्तिपूजा का पवित्र उद्देश्य वीतराग विभु श्री जिनेश्वर भगवन्त की भव्य मूर्ति जिनेश्वर के समान है । "जिन प्रतिमा जिन सारिखी" जो साक्षात् सर्वज्ञ जिनेश्वर प्रभु की उपासना का उद्देश्य है वही उद्देश्य मत्तिपूजा का है । यही उद्देश्य समझकर सभी को ऐसे तरणतारण देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवन्त की मूति-प्रतिमाजी की विधिपूर्वक पूजा अवश्य अहर्निश करनी चाहिये।
सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर-तीर्थंकरभगवन्त भाषित जैनसिद्धान्त-आगमशास्त्रों का यह कथन है कि-इस विश्व में प्रत्येक आत्मा सत्ता या निश्चयनय से परमात्मस्वरूप है। लेकिन संसारी आत्मा-जीवों की यह परिस्थिति ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों के अधीन-वश है । कारण कि संसारी आत्मा परपुद्गल के विषय में आसक्त होकर कर्मबन्धन करता है अर्थात् कर्म का बन्ध करता है। यही कर्म युक्त सांसारिक अवस्था प्रात्मा की है। इसलिये संसारी
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-३२