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लवजी ऋषि ने लोंकागच्छ से अलग होकर पुनः मूतिमन्दिर का विरोध किया। उसी समय लोंकागच्छ के श्रीपूज्यों ने इन दोनों को गच्छ से बाहर कर दिया। किन्तु इन दोनों के द्वारा नूतन प्रचारित मत चल पड़ा। इस प्रकार के नये मत को 'ढूंढक मत' कहा गया। जो 'साधुमार्गो' तथा 'स्थानकवासी' नाम से प्रसिद्ध है । इस नये मत में आज भी मन्दिर और मूत्ति का विरोध विद्यमान-चालू है । लेकिन ये लोंकाशा के अनुयायी नहीं कहे जाते हैं । क्योंकि इन ढूंढियों में और लोंकाशा के अनुयायियों में क्रिया और श्रद्धा में दिन-रात का अन्तर है।
स्थानकमार्गी समाज के ढूंढक तो यति लवजी ऋषि के ही अनुयायी हैं। . स्थानकवासी समाज की उत्पत्ति के संक्षिप्त इतिहास की ओर दृष्टिपात करते हुए लग रहा है कि आज उनमें से भी अनेक लोगों ने 'मूत्तिपूजा-प्रतिमापूजन' की परम
आवश्यकता को एवं आत्म-हितकारिता को स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, अब तो ये लोग भी तीर्थयात्रा में जाते हैं और प्रभु की पूजा प्रमुख का भी सुन्दर लाभ लेते हैं । जिनेन्द्रदेव के प्रतिष्ठादि महोत्सव में भी अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग सानन्द-सोल्लास करते हैं।
. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-३१