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पश्चात् अन्तिमावस्था में उनको अपने दुष्कृत्यों का पश्चाताप भी हुआ है। ___ बाद में उन्होंने सामायिक-प्रतिक्रमण-पौषध इत्यादि क्रियाओं को आदरपूर्वक स्थान दिया और दान देने की भी छूट दे दी।
इसके पश्चात् लोंकागच्छीय श्री पूज्य मेघजी तथा श्रीपालजी आदि सैकड़ों साधुओं ने इस लोंकामत का त्याग कर पुनः जैनदीक्षा को स्वीकार किया है, इतना ही नहीं किन्तु वे मूर्तिपूजा के समर्थक एवं प्रचारक भी बने।
लोंकागच्छीय आचार्यों ने तो कई एक मन्दिर-मूत्तियों की प्रतिष्ठायें भी कराई हैं, तथा अपने धार्मिक उपाश्रयों में भी वीतराग प्रभु की मूत्ति-प्रतिमाएं स्थापित कर स्वयं भी उनकी उपासना की है। लोंकागच्छ का एक भी उपाश्रय ऐसा नहीं था कि जहाँ वीतरागदेव श्री जिनेश्वर भगवान की मूर्ति-प्रतिमा न हो ।
आज भी लोंकागच्छ के उपाश्रयों में मूत्तियों की अस्तिता-विद्यमानता से मूर्तिपूजा स्पष्ट प्रमाणित होती है।
विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में यति धर्मसिंहजी और
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-३०