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उपाध्याय श्री कमलसंयमजी ने अपनो 'सिद्धान्तसार चौपाई' में लिखा है कि
अहवई हुऊ पोरोज्जिखान । तेहनई पातशाह दिई मान । पाडइ देहरा नई पोसाल । जिनमत पीडई दुषमकाल । लुंका नेइ ते मिलियु संयोग । ताव मांहि जिम शोषक रोग ॥
इससे ज्ञात होता है कि-पीरोज्जिखान (फिरोजखान) नाम का बादशाह मन्दिरों और पौषधशालाओं का विनाश कर जिनमत (जैनधर्म) को कष्ट पहुँचाता था । दुषमकाल के प्रभाव से बुखार (ताव) के साथ सिरदर्द के माफिक, लोंकाशा को उसका सहयोग मिल गया। क्रोधावेश में लोंकाशा ने मुसलमान सैयदों के वचनों पर विश्वास किया और वह अपने धर्म से च्युत हुआ ।
लोंकाशा ने केवल मूत्तिपूजा का ही विरोध नहीं किया, किन्तु जैनागम, जैनसंस्कृति, सामायिक-प्रतिक्रमण, देवपूजा, दान तथा प्रत्याख्यान प्रमुख का भी विरोध किया।
. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२६