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इत्यादि व्यक्तियों ने बिना सोचे-समझे सोलहवीं सदी में अनार्य संस्कृति के दूषित-बुरे प्रभाव से प्रभावित होकर के आर्यसंस्कृति के आधार-स्तम्भ कलात्मक मनोहर मन्दिरों और मूत्तियों के विरुद्ध घोषणा कर दी कि-ईश्वर की उपासना के लिये इन जड़ वस्तु-पदार्थों की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसा कहकर मूत्तियों द्वारा अपने अभीष्ट देवों की उपासना करने वालों को उन्होंने आत्मकल्याण के पवित्र मार्ग से दूर हटा दिया था।
श्री श्वेताम्बर जैनों का लोंकाशा के साथ सम्बन्ध है । लोंकाशा एक जैनकुल में जन्मा व्यक्ति था। उनके जीवन के विषय में भिन्न-भिन्न लेखकों के भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं, किन्तु 'लोंकाशा का जैन यतियों द्वारा अपमान हुआ', इस विषय में सभी सहमत अर्थात् एकमत ही हैं। क्योंकिइसके बिना त्रिकालपूजा करने वाले लोंकाशा का सहसा मन्दिर-मूत्तियों के विरुद्ध होना कदापि सिद्ध नहीं हो सकता। एक ओर लोंकाशा का अपमान हुअा तथा दूसरी
ओर उसे मुसलमानों का सहयोग मिला। यही लोंकाशा को कर्तव्य-च्युत करने वाला सिद्ध हुआ।
इसके सम्बन्ध में वि. सं. १५४४ के आस-पास हए
मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-२८