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अतः सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि चिरस्थायी बने, बनाये हुए ऐसे दृश्य मन्दिरों में जाकर देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवान की प्रशान्त मुद्रा युक्त भव्य मनोहर मूर्ति की भक्तिभावपूर्वक पूजा-अर्चनादि करके प्रात्म-कल्याण करें।
का प्राचीन इतिहास मूर्ति एवं मूर्तिपूजा के प्राचीन इतिहास की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं तब हमें स्पष्ट पता चलता है कि जितनी प्राचीनता इस संसार के इतिहास की है, उतनी ही प्राचीनता मूर्ति एवं मूर्तिपूजा की है। इसका कारण यह है कि-जगत् के इतिहास के साथ ही संसारी जीवों के कल्याण के लिये स्थापित आवश्यक मूत्ति एवं मूर्तिपूजा, दोनों का परस्पर घनिष्ट ही नहीं किन्तु घनिष्टतम सम्बन्ध है।
मूर्तिपूजा इतनी प्राचीन-पुरानी एवं कल्याणकारी है तो फिर इसका विरोध कब से हुअा ? किसके द्वारा और किस कारण से हुआ ?
विश्वस्त तथ्यों से इतिहास द्वारा यह निश्चय होता है
मूति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२२