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साकार, इन्द्रियगोचर तथा दृश्य वस्तु-पदार्थों की आवश्यकता अवश्य रहेगी ही।
अपने मनोमन्दिर में हम मानसिक कल्पना द्वारा परमेश्वर या परमेश्वर के निराकार गुणों की उपासना कर लेंगे। ऐसी परिस्थिति में मन्दिर-मूत्ति की क्या आवश्यकता है ? ऐसा कहना भी अज्ञानता है । कारण कि अपने मनोमन्दिर में निराकार ऐसे परमेश्वर की कल्पना करेंगे तो वह भी साकार ही होगी। जैसेकि-श्री तीर्थंकर परमात्मा अष्ट महाप्रातिहार्य से विभूषित तथा केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टय से समलंकृत दिव्य समवसरण में बिराजमान ऐसे श्री तीर्थकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवन्त की धर्मदेशना-समय की अवस्था । इस अवस्था की कल्पना निराकार नहीं, किन्तु साकार ही है । मूर्तिपूजक जो मन्दिर और मूत्ति के मानने वाले हैं वे भी इस प्रकार की कल्पना को ही मूत्ति स्वरूप प्रदान करके प्रभु की उपासना करते हैं ।
कल्पना करके या साक्षात् मूत्ति-प्रतिमा बनाकर उपासना करना, दोनों का ध्येय तो एक ही है । यदि अन्तर है तो इतना ही है कि-काल्पनिक मनोमन्दिर क्षण विध्वंसी अर्थात् क्षणस्थायी है और साक्षात् मन्दिर मूत्ति चिरस्थायी है।
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मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२१