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की उपासना असम्भव है। इस बात को सभी धर्मावलम्बी मानते हैं। इसलिये विश्व में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति तथा उसके अस्तित्व का आत्मविश्वास बनाये रखने के लिये मूर्तिपूजा-पूजन की परम आवश्यकता है।
प्राकृतिक पद्धति-नियम के अनुसार जीवों का मूर्तिप्रतिमा की ओर विशेष झुकाव देखा जाता है । विश्व में मूल वस्तु को पहचानने के लिए और स्मृति-स्मरण करने में मूर्ति या चित्र की अति आवश्यकता रहती है । गुणपूजा के लिए भी आकृति-आकार जरूरी है।
यदि यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि परमेश्वर या परमेश्वर के निराकार गुणों की, हम हमारे मनमन्दिर में मात्र मानसिक कल्पना द्वारा उपासना कर लेंगे, तो फिर पाषाणमय मन्दिर मूर्ति की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् परमेश्वर की उपासना हेतु जड़मूत्ति का आलम्बन लेने की अपेक्षा उनके गुणों का आलम्बन लेना अच्छा क्यों नहीं ? किन्तु यह प्रश्न सही रूप में कम समझ का है । कारण कि-जिस प्रकार परमेश्वर निराकार है, उसी प्रकार परमेश्वर के गुण भी निराकार हैं । दोनों निराकार हैं तो फिर अल्पज्ञ जीवों को उपासना में लीन-मग्न करने के लिये
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२०