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नहीं है । कारण कि, जैसे परमेश्वर निराकार है वैसे ही उनके गुण भी निराकार ही हैं।
जब परमेश्वर और उनके गुण भी निराकार हैं तो उनको चर्मचक्षु वाले प्राणी कैसे देख सकेंगे ? और उनकी उपासनादि भी कैसे कर सकेंगे ?
इसके लिये चर्मचक्षु वाले को साकार, इन्द्रियगोचर ऐसे दृश्य वस्तु-पदार्थों की ही आवश्यकता रहती है ।
विश्व में ऐसा सर्वोत्तम साधन शुक्ल ध्यानावस्थित और प्रशान्त मुद्रा युक्त श्री जिनेश्वर भगवान की मनोहर मत्ति-प्रतिमा से बढ़कर अन्य कोई भी नहीं है। चाहे वह मूत्ति-प्रतिमा पत्थर-पाषाण की हो, काष्ठ की हो, रत्नसोना-चांदी, सर्वधातु की हो, मिट्टी की हो, बालू-रेती की हो, या किसी अन्य पदार्थ की भी क्यों न हो; किन्तु उपासक का लक्ष्य तो उस मूत्ति द्वारा श्रीवीतराग परमात्मा के सच्चे स्वरूप का चिन्तन-ध्यान करना ही रहता है ।
__ यदि परमेश्वर की उपासना सद्धर्म का एक मुख्य अंग है तो उसकी सिद्धि के लिये मूत्ति-प्रतिमा की आवश्यकता अवश्य ही है। इससे इन्कार नहीं हो सकता । मूत्ति-प्रतिमा के अभाव में किसी भी निराकार वस्तु-पदार्थ
. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१६