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(११) मूत्तिपूजा की अत्यन्त आवश्यकता
संसार में परिभ्रमण करने वाले संसारी जीवों, मुमुक्षुओं एवं धर्मी भव्यात्माओं का अन्तिम ध्येय जन्ममरणादि समस्त दुःखों का, अनादि काल से अपनी आत्मा के साथ रहे हुए अन्तर शत्रु ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों का सर्वथा क्षय यानी विनाश करके मोक्ष का अक्षय-शाश्वत सुख प्राप्त करने का होता है ।
इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर वे धर्मी भव्य जीव यथासाध्य विशेष प्रयत्न भी करते हैं। इस भगीरथ महान् कार्य की पूर्ति-पूर्णता के लिये सबसे पूर्व निमित्त कारण की अति आवश्यकता रहती है ।
इससे ही अपनी आत्मा अपना समस्त कार्य जैसे चंचल-चपल चित्त की एकाग्रता, पाँचों इन्द्रियों का दमन और सभी कपायों पर विजय प्राप्ति कर सकता है।
वह निमित्त कारण सारे विश्व में मुख्यतः वीतराग विभु की प्रशान्त मुद्रामय मूत्ति-प्रतिमा हो है ।
वह मूत्ति चाहे रत्नों की हो, पंच धातु की हो, 'पाषाण की हो, धातु की हो, काष्ठ या मिट्टी इत्यादि की हो।
मूत्ति-२ . मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१७