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________________ प्राकृति-आकार बिना निराकार नहीं , और मूत्ति-प्रतिमा बिना प्रभु-परमात्मा नहीं । अर्थात्-परमात्मा ज्ञान से सर्वव्यापक होते हुए भी मूत्तिप्रतिमा के आलम्बन बिना प्राप्त नहीं हो सकते हैं। इसलिये परमात्मा की मूत्ति-प्रतिमा का पालम्बन अवश्य लेना चाहिये। परमात्मा की मूर्ति-प्रतिमा का आकारआकृति देखने से परमात्मा का असली स्वरूप अपने आप अपनी दृष्टि में आ जाता है। परमात्मा की मूत्ति-प्रतिमा देखते ही अपना अन्तःकरण-हृदय अनुपम-भक्ति और आनन्द से भर जाता है, मन रूपी मयूर नाच उठता है और शरीर रोमांचित हो उठता है । (५) 'मूत्ति' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ 'मूर्छा = मोह-समुच्छाययोः' अर्थात् मूर्छा धातु मोह और समुद्राय अर्थ में है। इसलिये मूत्ति शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार होती है-'मूर्च्छति समुच्छ्यतीति मूत्तिः' सम्-सुष्ठु उत्-ऊर्ध्वं श्रयः-श्रवणं-समुच्छय; समुच्छ्यः एव समुच्छ्रायः । अर्थात्-अच्छी तरह उच्च सुख के लिये यानी परम शान्ति के लिये या परमसुख के लिये अथवा उच्च लोक के लिये जिसकी उपासना-सेवा-भक्ति की जाय, मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१२
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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