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पावश्यकमहियाशब्द विचारो,भरत-श्रेणिकभराव्याबिम्बजी। वग्गुर श्रावक पुरिमताल को, केई चैत्य कराव्या थूभजी ॥
प्रतिमा० ॥ २४ ॥
वादी कहे आतो पंचाङ्गी, मेतो मानां मूलजी । वज्र भाषा बोले एसी, नहि समकित को मूलजी ॥
प्रतिमा० ॥ २५ ॥
पंचाङ्गी तो कही मानणी, सुण सूत्र की साखजी। समवायाङ्ग द्वादशाङ्गी हुंडी, जिनवर-गणधर भाषजी ।
_प्रतिमा० ॥ २६ ॥ शतक पचीस उदेशो तीजो, भगवती अंग पिछाणजी। सूत्र-अर्थ-नियुक्ति मानो, या जिनवर की प्राणजी ॥
प्रतिमा० ॥ २७ ॥
अनुयोगद्वार सूत्र में देखो, नियुक्ति की वातजी । नन्दी में नियुक्ति मानी, छोड़ो हठ मिथ्यात्वजी ॥
प्रतिमा० ॥ २८ ॥
वादी कहे वातो नियुक्ति, गइ काल में वीतजी । नवी रची आचारिज ज्यारी, किम आवे प्रतीतजी ॥
प्रतिमा० ॥ २६ ॥
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२७४