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अमेय - परमपवित्र - माहात्म्यमाला - स्वरूप . यह 'श्रीजिनप्रतिमाष्टक' जब तक आकाश में सूर्य और चन्द्र सुशोभित हैं तथा यह पृथिवी कायम है तब तक [सबके हृदयों में] समुल्लसित होता रहे ।। ६ ।
(वसन्ततिलका-वृत्तम्) श्रीनेमिसूरिप्रवरस्य गुरोः सुशिष्यः । लावण्यसूरिरभवन्निखिलागमज्ञः । तदक्षसूरिप्रवरस्य सुशीलसूरिः, । शिष्यो भवन् रचितवान् प्रतिमाष्टकञ्च ॥ १० ॥
भावार्थ-सूरिसम्राट् श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी गुरु महाराज के सुशिष्य श्रीमद् विजयलावण्यसूरिजी महाराज समस्त आगमशास्त्रों के ज्ञाता हुए। उन्हीं के स्वनामधन्य शिष्य आचार्य श्रीमद् विजयदक्षसूरिजी महाराज के शिष्य विजयसुशीलसूरि ने इस जिनप्रतिमाष्टक की रचना की ।। १० ॥
॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥
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मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२६८