SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्हन् मूतिरहनिशं हृदि गता, संराजते यस्य च , तच्चित्तानुगताः समस्तविषयाः सम्भान्ति निर्धान्तितः। तस्मात् तां समुपास्य शुद्धहृदय-र्भाव्यं सदा सज्जनैः , अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ ८ ॥ भावार्थ-श्री अरिहन्त परमात्मा की मूति-प्रतिमा जिनके हृदय-कमल पर विराजित है, उनके लिए निगूढ़ से निगूढ़ रहस्य भी भ्रान्ति रहित होकर स्पष्टतया दृग्गोचर होते हैं। अतएव उस परम पावनी की उपासना करके सभी मनुष्यों को निर्मल अन्तःकरण बनना चाहिए। जिनके चित्त को अज्ञान रूपी अन्धकार ने आच्छादित कर रखा है, उनकी दृष्टि परमात्मा की परम पावन मूर्ति-प्रतिमा पर नहीं पड़ती है ।।८।। अर्हन्मूत्तिसमर्थकं गुरणकरं, सत्तत्त्वसन्दर्शकं , नित्यानन्दकरं सुशान्तिसुखदं, सौहार्दसम्भावकम् । सत्यं शाश्वतमप्रमेयमनघं, माहात्म्यमालामयं , यावच्चन्द्रदिवाकरौ च वसुधा, संराजतामष्टकम् ॥ ६ ॥ भावार्थ-श्री अरिहन्त-जिनमूर्ति प्रतिमा का समर्थक, गुणकारी, सत्तत्त्व - परामर्शक, नित्यानन्दकारी, सुखशान्तिदायक सुहृद्भाव जागृत करने वाला, सत्य-शाश्वत मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-२६७
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy