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________________ प्रकाश वाली, समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली, कल्पलता के समान मनोरथों को परिपूर्ण करने वाली, संसार रूपी समुद्र से पार जाने की इच्छा वाले मुमुक्षुत्रों के लिए जहाज - नौका के समान उपकारी है । किन्तु जिनके चित्त को अज्ञान रूपी अन्धकार ने प्राच्छादित कर रखा है, उनकी दृष्टि परमात्मा की परम पावन मूर्ति - प्रतिमा पर नहीं पड़ती है || ६ || अर्हन्मूत्तिरहो विबोध - तरणी, स्नेहाम्बुवर्षी झरी, उत्फुल्लैश्च नितान्त कान्तनयनैनिर्भ्रान्ति शान्तिप्रदा । सिद्धान्तागमसूक्तिमुक्तिवचनैनित्यं प्रमाणीकृता, प्रज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां दृष्टिनं तत्रेङ्गते ॥७॥ भावार्थ - अरिहन्त भगवान की मूर्ति प्रतिमा ज्ञान रूपी सूर्य के समान भामती, झरने की तरह स्नेहामृत बरसाने वाली, उत्फुल्ल, अत्यन्त कमनीय नेत्रों से निर्भ्रान्त शान्ति प्रदान करने वाली है और सिद्धान्त - आगम सूक्ति आदि वचनों से सर्वथा प्रमाणित है । फिर भी जिनके चित्त को अज्ञानरूपी अन्धकार ने आच्छादित कर रखा है, ऐसी उनकी दृष्टि परमात्मा की परम पावन मूर्ति पर नहीं पड़ती है ||७|| मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - २६६
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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