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________________ यैरेषा भगवत् प्रतापलसिता, मूतिर्न सम्पूजिता , स्वान्तन्तिमयैर्धरापि बहुधा, भारीकृता भूरिशः । क्लिष्टं क्लिष्टतरञ्च वञ्चकमयं, सज्जीवनं यापितं, अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥५॥ भावार्थ-जिन्होंने अनन्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न, तेजःस्फूति स्वरूप ऐसी भगवन् मूर्ति की पूजा नहीं की, ऐसे आन्तरिक अज्ञान रूपी अन्धकार में फंसे हुए लोगों ने अपने भार से पृथ्वी को भारी बनाया है तथा वञ्चकता से परिपूर्ण ऐसा अपना समस्त जीवन अत्यन्त क्लेशमय व्यतीत किया है। फिर भी, जिनके चित्त को अज्ञान रूपी अन्धकार ने आच्छादित कर रखा है, उनकी दृष्टि परमात्मा की परम पावन मूर्ति-प्रतिमा पर नहीं पड़ती है।।५।। अज्ञानान्धतमो विनाशनविधौ, चञ्चत् प्रभाभासुरा, भास्वद् भास्करतोऽधिका द्युतिमयी, श्रीकल्पवृक्षोपमा । संसाराब्धिसुपारगन्तुमनसां, पोतायमानाऽनिशं, अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥६॥ भावार्थ-श्री जिनेश्वर भगवान की दिव्य मूत्तिप्रतिमा अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए चमकती हुई किरणों से सुशोभित सूर्य से भी अधिक .. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२६५
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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