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में जब से मानव जाति का अस्तित्व है तब से ही मूर्ति एवं मूर्तिपूजा विद्यमान है। इसका कारण यही है कि'विश्व ही स्वयं मूर्तिमान् पदार्थों का समूह है।' अर्थात्समस्त विश्व मूर्तिमान् पदार्थों का समुदाय रूप है । जितना ही प्राचीन यह विश्व-जगत् है, उतनी ही प्राचीन मूत्ति तथा उसकी पूजा-अर्चना है।
सर्वज्ञ जिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्त भाषित जैनसिद्धान्तआगमशास्त्रों में धर्मास्तिकाय इत्यादि 'षद्रव्य' अविनश्वर शाश्वत बतलाये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) पुद्गलास्तिकाय, (५) जीवास्तिकाय
और (६) काल। इनमें पाँच द्रव्य अमूर्त यानी अरूपी हैं और एक द्रव्य मूर्त यानी रूपी है। इस विश्व में धर्मास्तिकाय इत्यादि पाँच द्रव्य अमूर्त कहे जाते हैं । सिर्फ एक पुद्गलास्तिकाय द्रव्य ही मूर्त कहा जाता है । इतना होते हुए भी धर्मास्तिकायादि पाँच अमूर्त द्रव्यों का ज्ञान भी मूर्त पुद्गलास्तिकाय द्रव्य से ही होता है। इन अमूर्त द्रव्यों का भी कोई आकारविशेष माना गया है । यावत् अलोकाकाश या जहाँ पर केवल एक आकाश द्रव्य ही है, वहाँ पर उसको भी गोले जैसे प्राकृति-आकार वाला माना
मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-६