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शोभानों से सुशोभित है; आगमवाणी के वचनामृतों से तथा सैद्धान्तिक प्रमाणों से प्रमाणीकृत है किन्तु जिनके चित्त को अज्ञान रूपी अन्धकार ने आच्छादित कर रखा है, उनकी दृष्टि परमात्मा की परम पावन मूत्ति-प्रतिमा पर नहीं पड़ती है ।।१।। सौम्या रम्यतरा गुणैकवसतिः, सारस्वतीयं पुनः , गम्भीरा च समुद्रमुद्रमधुरा, माधुर्यधुर्य ता । सद्भिस्सेवितपादपद्ममनघा, द्रव्यादिभावैर्मुदा , अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥२॥
भावार्थ-सार-स्वरूपिणी यह जिनेश्वर प्रभु की मूत्तिप्रतिमा सौम्य, रम्य और अनन्त गुणों की निवास-भूमि है। समुद्र की तरह से धीर-गम्भीर तथा दर्शन मात्र से माधुर्य भाव का संचार करने वाली मनमोहक ऐसी जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा सज्जनों के द्वारा द्रव्य तथा भाव से पूजित होती है, किन्तु जिनके चित्त को अज्ञान रूपी, अन्धकार ने आच्छादित कर रखा है, उनकी दृष्टि परमात्मा की परम पावन मूत्ति-प्रतिमा पर नहीं पड़ती है ।।२।। सन्नामाकृतिद्रव्यभावभरितैः शास्त्रानुगे धीर्धनैः , पौनः पुण्यमयैश्च सुष्ठुवचनैः, सद्रूपस्वीकारिता । मूत्तिः श्रीजिनराज-राजमुकुटालङ्काररूपा सती , अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥३॥
... मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-२६३