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है। सम्भव है, पुरातत्त्व के उत्खनन इसे कल और भी पुरातन प्रमाणित कर सकें।
जैन मतियों और मन्दिरों के भव्य स्थापत्य को देखकर किसी का यह साहस तो नहीं हो सकता कि वह जैनों के मूर्तिपूजा विषयक बौद्धिक परामर्श को असमीचीन या अबुद्धिसमन्वित कह सके । निश्चय ही सनातन काल से चली आ रही जैनों की मूर्तिपूजा ठोस मनोविज्ञान की भूमि पर आधारित है। मूत्ति के द्वारा ही अमूर्त परमात्मा की दिव्य झाँकी के आंशिक दर्शन कर पाते हैं और इसी का अवलम्बन लेकर जनसाधारण अपनी श्रद्धा का आधार पाता है। मूत्ति के माध्यम से ही प्रत्येक चेतना प्राप्त करता है ।
. जहाँ कुतकियों और अल्पज्ञानियों को मूर्ति में पत्थर दिखाई देता है, वहाँ श्रद्धालुओं को उसमें साक्षात् परमात्मा का साक्षात्कार होता है। भावपूजा से अनभिज्ञ द्रव्यपूजकों को मूर्तिपूजा से ही प्रात्मशान्ति मिलती है। मूर्तिपूजकों की अविचल निष्ठा को विचलित करने का सामर्थ्य स्वयं स्वयम्भू में भी नहीं है।
प्रस्तुतकर्ता-सुभाष पालीवाल [भक्ति पुष्पाञ्जलि भाग द्वितीय में से उद्धृत]
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२६१