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कायोत्सर्ग की ये विशिष्ट मुद्राएँ 'जैन' हैं। 'आदिपुराण'
और अन्य जैन ग्रन्थों में इस कायोत्सर्ग मुद्रा का उल्लेख ऋषभ या ऋषभनाथ के तपश्चरण के सम्बन्ध में बहुधा किया गया है। ये मूर्तियाँ ईस्वी सन् के प्रारम्भिक काल की मिलती हैं और प्राचीन मिश्र के प्रारम्भिक राज्यकाल के समय की दोनों हाथ लम्बित किये खड़ी मत्तियों के रूप में मिलती हैं। प्राचीन मिश्र मूत्तियों में प्रायः खड्गासन में हाथ लटकाये हुए समानाकृतिक मुद्राएँ हैं तथापि उनमें देहोत्सर्ग का (निःसंगत्वक) वह अभाव है जो सिन्धुघाटी की मूत्तियों में मिला है।"
___ आधुनिक विद्वानों में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, पी. सो. रायचौधरी पटना, भारतीय पुरातत्त्व के मुख्य निर्देशक श्री टी. एन. रामचन्द्रन्, वाचस्पति गैरोला, रामधारीसिंह 'दिनकर' प्रभृति ने जैनधर्म पर निष्पक्ष दृष्टिपात करते हुए उसे वैदिक धर्म का समकालीन अथ च उससे भी पूर्ववर्ती सिद्ध किया है। अनेक विद्वानों का मत है कि 'मूर्तिपूजा' जैनों की देन है। इस दृष्टि से मूर्तिपूजकों का इतिहास आज ईसा की शताब्दियों के उस पार 'सिन्धुघाटी' सभ्यता के अवशेषों में मिल चुका
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२६०