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मूर्तिपूजा की प्राचीनता आज प्रमाणित हो चुकी है। 'मोहनजोदड़ो' और 'हड़प्पा' के उत्खनन से जो ५००० वर्ष प्राचीन वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं उनमें भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) की खड्गासन प्रतिमा भी है, जो नग्न है और जैनों की मूर्तिपूजा को 'सिन्धुघाटी' सभ्यता तक ले जाती है। वैदिक धर्मानुयायियों ने भी भगवान ऋषभनाथ को ईश्वर का अवतार बताया है
और मुक्तिमार्ग का प्रथम उपदेशक स्वीकार किया है। 'भागवत पुराण' में भगवान ऋषभनाथ का बड़ा सजीव वर्णन पौराणिक महर्षि व्यासदेव ने किया है। योगवाशिष्ठ, दक्षिणामूत्ति सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम, दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न स्तोत्र, हनुमन्नाटक, रुद्रयामल तंत्र, गणेश पुराण, व्याससूत्र, प्रभास पुराण, मनुस्मृति, ऋग्वेद और यजुर्वेद में जैनधर्म का उल्लेख हुआ है और इसकी सनातन प्राचीनता को वैदिक पौराणिक मनीषियों ने साग्रह स्वीकार किया है ।
'सिन्धुघाटी' सभ्यता के अन्वेषक श्रीरामप्रसाद चन्दा का कथन है कि “सिन्धुघाटी में प्राप्त देवमूत्तियाँ न केवल बैठी हुई ‘योगमुद्रा' में हैं अपितु खड्गासन देवमूर्तियाँ भी हैं, जो योग की 'कायोत्सर्ग मुद्रा' में हैं ।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५६