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________________ भीम, अर्जुन, हनुमान, चक्रवर्ती खारवेल (उड़ीसा), समर-केसरी श्री चामुण्डराय, महाराणा प्रताप और शिवाजी (महाराष्ट्र) आदि वीरों का स्मरण कर अपने में अतुल शक्ति का संचय करता है, उसी प्रकार आत्मा के पुरुषार्थ में मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाला भगवान की पवित्र प्रतिमा के दर्शन से अपने में सत्साहस और निर्मलता प्राप्त करता है । मूर्तिपूजा गुणों की पूजा है। वन्दना के पात्र तो गुण हैं; मूत्ति के माध्यम से पूजित भगवान के गुणों का स्मरण व्यक्ति के गुणों को निर्मलता प्रदान करता है । निर्मलता से परिणाम-विशुद्धि होती है और परिणामविशुद्धि ही चारित्र-मार्ग की जननी है। चारित्र से मोक्षसिद्धि होती है। अतः मूर्तिपूजा को अपदार्थ मानने वाले बहुत भ्रम में हैं। उनकी दृष्टि अज्ञान से आच्छन्न है। मूर्तिपूजा की विशाल पृष्ठभूमि से वे नितान्त अपरिचित हैं। मनुष्य अपने उद्धार के लिए किसी-न-किसी संस्कार की पाठशाला में जाता है। देवालय ही वह संस्कार-पाठशाला है। भगवान की मूत्ति ही परमगुरु है। कोई भी सम्यक्चेता भव्य इस पाठशाला से लाभ उठाकर भागवत पद को प्राप्त कर सकता है। मूत्ति की सिद्धि एवं मूत्तिपूजा की प्राचीनता-२५८
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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