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करना तथा उनके समान अपने आत्म-लाभ के लिए प्रेरणा प्राप्त करना। मूर्ति का दर्शन, उसकी नित्य पूजा सदा से मानव में इन्हीं उदार विशेषताओं की गुणाधान प्रक्रिया को बल प्रदान करती रही है ।
समाज के धार्मिक उत्थान में मूर्तिपूजा ने महान् सहयोग दिया है। बड़े-बड़े समाज धर्म के संगठन से ही शक्तिशाली बनते हैं और अपने आत्मिक उत्थान में प्रवृत्त होते हैं। समाज के बहुधन्धी, बहुमुखी व्यक्तिसमुदाय को मन्दिरों के माध्यम से एक स्थान पर 'आत्म-केन्द्र' मिलते हैं। देवालय सार्वजनिक होने से उन्हीं में समाज मिलकर बैठ सकता है। यहाँ पवित्र वातावरण रहता है और भगवान का सान्निध्य भी, इसलिए समाज के लिए मूर्तिपूजा अपने सम्पूर्ण गुणसमवायों के संरक्षण का स्थान है, एकता प्राप्त करने का दैवी सम्बल है। मनुष्य को अमरता का वरदान देव के चरणों में बैठकर ही मिलता है। मूत्ति के चरणों में ही उसका देहाभिमान गलित होता है और प्रात्मा का उदग्र पुरुषार्थ उदय में आता है। भव्य परिणामों को उपस्थित करने में 'मूर्तिपूजा' का प्रमुख स्थान है । जिस प्रकार युद्धप्रयाण करने वाला सैनिक भरत बाहुबली,
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मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५७