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सिंह, वृषभ, कमल इत्यादि चिह्नांकन से तीर्थंकरों के पृथक्-पृथक् नाम रूप के अस्तित्व का ज्ञापन मूत्ति में किया जाता है। यदि पाषाण को 'सुवर्ण' कहा जाए तो मूत्तियों को कटक, रुचक, कुण्डल कह सकते हैं। जैसे 'कुण्डल' स्वरूप में 'उत्पाद' अवस्था को प्राप्त हुए सुवर्ण को कोई सुवर्ण नहीं कहता 'कुण्डल' कहता है। उसी प्रकार विधि-सम्मत स्थापनाओं से निमित्त देवप्रतिमा को पाषाण नहीं कहा जा सकता।
__ प्रतिमा के पूज्य आसन पर प्रतिष्ठित होने वाली मूत्ति को मन्त्रों से, प्रतिष्ठा-विधि से लक्षणानुसार बनाये गये मन्दिर में विराजमान किया जाता है और उसमें देवत्व भावना का विन्यास किया जाता है। वह प्रतिमा श्रद्धालुओं की आस्था को केन्द्रित करती है और उसके निमित्त से मन्दिरों और चैत्यालयों में धर्म के घण्टानाद सुनाई देते हैं। मन्त्र, स्तुति-स्तोत्र, पूजाप्रक्षाल, अर्चन-वन्दन होते हैं और विशाल जनसमुदाय की उदात्त भावनाओं को उस प्रतिमा से सम्बल मिलता है।
इस प्रकार धर्म, समाज और संस्कृति के उत्थान में मूर्तिपूजा का महत्त्व प्रतिरोहित है। मूत्ति में संस्कारों
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५२