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भगवान में भी नहीं है। वह प्रतिमा के सम्मुख उपस्थित होकर किस भाषा में बोलता है ? सुनने वाले के प्राण गद्गद् हो उठते हैं। नेत्रों में भावसमुद्र लहराने लगता है
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं ,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः ,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥ हे भगवन् ! आपके अनिमेष विलोकनीय स्वरूप को देखकर मेरी आँखें दूसरे किसी को देखना नहीं चाहतीं। भला इन्दु की ज्योत्स्नाधारा पीने वाले को क्षारसमुद्र का जल क्या अच्छा लगेगा? यहाँ मूर्तिपूजेक के नेत्रों में जो पार्थिव से परे दिव्य रूप नाच रहा है, उसे पाषाण-पूजा कहने का साहस किसमें है ?
पाषाण और मूत्ति में जो भेद है, उसे न जानने से ही इस प्रकार की असत् कल्पना लोग करने लगते हैं । ___पाषाण को उत्कीर्ण कर उसमें इतिहास और आगम प्रामाण्य से तत्-तद्-देवता के विग्रहों की रचना की जाती है।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५१