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________________ सौन्दर्य को देखने वाला उसके मूल में लगे काँटों को नहीं देखता, कमल पुष्प का प्रणयी जैसे उसके पंकमल का स्मरण नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा के समस्त चैतन्य को अपनी प्रशान्तमुद्रा से आकर्षित करने वाले भगवान की प्रतिमा को देखते हुए भक्त के नेत्र उसके पाषाणत्व से ऊपर उठकर गुणधर्मावच्छिन्न लोकोत्तर व्यक्तित्व का ही दर्शन करने लगते हैं और उस समय पूजक के कण्ठ से स्तुतिछन्द गीयमान होते हैं उनमें पाषाणक सत्ता के चिह्न भो नहीं मिलते । भक्त के सम्मुख स्थित प्रतिमा में उसके आराध्य की झलक है, उसकी भावनाओं का आकार है। वे प्रभु अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञानमय हैं। देव-देवेन्द्र उनकी पदवन्दना करते हैं। उनका वीतराग विग्रह पाषाण में रति कैसे कर सकता है ? उनका मुक्त प्रात्मा प्रतिमा में निबद्ध कैसे कहा जा सकता है ? यह तो भक्त की भावना है, उसका उद्दाम अनुरोध है जो सिद्धालय में बिराजमान भगवान के साक्षात् दर्शन के लिए अधीर होकर प्रतिमा के माध्यम से उनकी स्तुति करता है, पूजा-प्रक्षालन करता है। उसकी भावना के समुद्र पर्यन्त विस्तीर्ण मनोराज्य को झुठलाने का साहस स्वयं मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५०
SR No.002340
Book TitleMurti Ki Siddhi Evam Murti Pooja ki Prachinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1990
Total Pages348
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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