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देना है। मूत्ति में जो व्यक्त सौन्दर्य है, उसके दर्शन तो स्थल आँखों वाले भी कर लेते हैं । ___ मूत्तिकार जब किसी अनगढ़ पत्थर को तराशता है, तो उसकी छैनी की प्रत्येक टंकोर उत्पद्यमान मूत्तिविग्रही देव की प्रारणवत्ता को जाग्रत करने में अपना अशेष कौशल तन्मय कर देती है। असीम धैर्य के साथ, अश्रान्त परिश्रमपूर्वक, उसके तत्क्षण में गुणाधान की प्रक्रिया कार्य करती रहती है। अवयवों के परिष्कार से, रेखाओं की भंगिमा से, अधरों की बनावट से, चितवन के कौशल से, बरौनियों की छाया में विश्रान्त नीलकमल से, नयनों की विशालता से, पीनपुष्ट भुजदण्डों से न केवल मूर्तिकार अंगसौष्ठव ही तैयार करता है, अपितु वह स्पन्दनरहित प्राणाधान ही मूत्ति में प्रतिष्ठापित कर देता है । उस मूत्ति को, विग्रह को देखने मात्र से प्राण पुलकित हो उठते हैं, चित्त की प्राह्लाद-शक्ति प्रबुद्ध होकर नाच उठती है; जिसको ढूढकर नेत्र थक गये थे, उसी की मुद्रांकित प्रतिमा स्वयं साकार होकर समुपस्थित हो जाती है। ___हमारा मन, जो एक भाव समुद्र है, मूत्ति उसमें पर्वतिथियों के ज्वार तरंगित कर देती है। जैसे-गुलाब के
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२४६