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परिशिष्ट-||
मत्ति की नहीं, बल्कि मत्तिमान की पूजा
एक परिचय मूर्ति पूजा का इतिहास बहुत प्राचीन है। मनुष्य की धार्मिकचर्या में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। आस्था और श्रद्धा के अंग देव-प्रतिमाओं के चरणपीठ बने हुए हैं । मूत्ति में निराकार साकार हो उठता है और इसके भावपक्ष की दृष्टि में साकार निराकार की सीमाओं को छू लेता है। मूत्ति अकम्प और निश्चल होने से सिद्धावस्था की प्रतीक है। उपासक अपनी समस्त बाह्य चेष्टाओं को और शरीर की हलन-चलनात्मक स्पन्दन क्रियाओं को योगमुद्रा में आसीन होकर मूत्तिवत् अचलअडिग कर ले और सम्मुख स्थित प्रतिमा के समान तद्गुण हो जाए, यह उसकी सफलता है ।
__ मूत्ति में मूत्तिधर के गुण मुस्कराते हैं। वह केवल पाषाणमयी नहीं है । उसके अर्चकों पर “पाषाणपूजक" लाञ्छन लगाना अपने अकिंचित्कर बुद्धिवैभव का परिचय
मूत्ति की सिद्धि एव मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२४८