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रचना में भी चित्त की एकाग्रता के लिए प्रभुमूर्ति की अति आवश्यकता सिद्ध होती है। देवाधिदेव तारक भगवान की भव्य-मनोहर मूत्ति के दर्शन से उनके अनन्त गुणों का स्मरण होता है, इतना ही नहीं किन्तु श्रद्धालु भक्तजनों को तो भगवान के प्रत्यक्ष-साक्षात्कार जैसा अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है तथा भगवान की मूर्ति को साक्षात् भगवान समझ कर भावयुक्त उनको भक्ति होती है। ____जब पूजक ही प्रभु की मूर्ति में पूजा योग्य गुणों को आरोपित करता है, तब उसको प्रभु की मूर्ति साक्षात् वीतराग-जिनेश्वर भगवन्त ही प्रतिभासित होने लगती है। जिस भावना से वह प्रभुमूर्ति को देखता है, उसे वह वैसा ही फल देतो है। साक्षात् भगवान के समान मूर्ति भी तारक होते हुए भी उसकी आशातना करने वाले को बुरा फल मिलता है और उसे भोगना भी पड़ता है; इसलिए प्रभु की आशातना नहीं करनी चाहिए।
. मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२४७