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तब उनको भी अपनी दृष्टि के सामने कोई-न-कोई वस्तु अवश्य रखनी होती है ।
ज्योतिस्वरूप भगवान को मानकर उनका ध्यान करने वाला भी उस ज्योति को किसी-न-किसी श्वेतादि रंग वाली मानकर ही उसका ध्यान कर सकता है । सिद्ध भगवन्त पौद्गलिक हैं । इसलिए उनको सर्वज्ञ केवलज्ञानी बिना अन्य कोई नहीं जान सकते हैं ।
निराकार ऐसे सिद्ध भगवन्तों का ध्यान करने में अतिशयवन्त ज्ञानियों को छोड़कर अन्य कोई भी समर्थ नहीं हो सकता है ।
मन में मानसिक मूर्ति की कल्पना करने वाले को समझना चाहिए कि मानसिक मूर्ति प्रदृश्य और अस्थिर है, जबकि प्रकट मूर्ति दृश्य और स्थिर है, इसलिए वह ध्यानादिक के लिए विशेष ही अनुकूल है ।
जब साक्षात् तीर्थंकर भगवान - जिनेश्वरदेव दिव्य समवसरण में भी पूर्व दिशा की ओर अपना मुख कर बैठते हैं, उस वक्त शेष उत्तर-पश्चिम-दक्षिण इन तीनों दिशाओं में देवगण भगवान की तीन मूत्तियों की स्थापना उसी समवसरण में करते हैं । दिव्य समवसरण की
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता - २४६