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इससे यह सिद्ध होता है कि श्री ऋषभदेव भगवान के समय में श्री अजितनाथादि तेईस तीर्थंकरों के होने से पूर्व भी उनको पूजा तथा मूत्ति एवं मन्दिर द्वारा उनकी सेवा-भक्ति आदि करने की प्रथा सनातन काल से चली आ रही है।
इसका समर्थन विद्वान्-महान् ज्ञानी पुरुषों ने भी सानन्द किया है। इसलिए इसमें सन्देह-संशय नहीं होना चाहिए।
[५] प्रश्न-भगवान निरंजन निराकार हैं, तो उनकी उपासना, आराधक आत्मा ध्यान द्वारा कर सकता है, तो फिर मूर्तिपूजा या प्रतिमापूजन मानने का कारण क्या ?
उत्तर-इन्द्रियों से ग्राह्य वस्तु-पदार्थों का विचार मन अवश्य कर सकता है, किन्तु उनके अतिरिक्त वस्तुपदार्थों का विचार या कल्पना भी मन को नहीं हो सकती है । कारण यह है कि मनुष्य के मन में यह शक्ति-ताकत नहीं है कि वह निराकार का ध्यान कर सके। छद्मस्थ आत्मा को जब ध्यान करने का होता है
.. मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२४५